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हर क़दम पर मुझे लग़्ज़िश का गुमाँ होता है | शाही शायरी
har qadam par mujhe laghzish ka guman hota hai

ग़ज़ल

हर क़दम पर मुझे लग़्ज़िश का गुमाँ होता है

उरूज ज़ैदी बदायूनी

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हर क़दम पर मुझे लग़्ज़िश का गुमाँ होता है
चश्म-ए-साक़ी की नवाज़िश का गुमाँ होता है

ये हिजाबात-ए-तअय्युन मुझे मंज़ूर नहीं
फ़िक्र-ए-आज़ाद को बंदिश का गुमाँ होता है

लुत्फ़-ए-पैहम न सही जौर-ए-मुसलसल ही सही
हर तवज्जोह पे नवाज़िश का गुमाँ होता है

उन के आगे लब-ए-इज़हार पे है मोहर-ए-सुकूत
एक ख़ामोश परस्तिश का गुमाँ होता है

मैं क़फ़स में हूँ क़फ़स पेश-ए-निगाह-ए-सय्याद
पर-ए-पर्वाज़ में जुम्बिश का गुमाँ होता है

सिर्फ़ तुम दिल की तबाही का सबब क्या होते
बख़्त-ए-ना-साज़ की साज़िश का गुमाँ होता है

बात ये क्या है 'उरूज' इन की हर इक बात में आज
अपनी हर तर्ज़-ए-गुज़ारिश का गुमाँ होता है