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हर नक़्श हवा हो के बिखर जाएगा आख़िर | शाही शायरी
har naqsh hawa ho ke bikhar jaega aaKHir

ग़ज़ल

हर नक़्श हवा हो के बिखर जाएगा आख़िर

ख़ालिद शिराज़ी

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हर नक़्श हवा हो के बिखर जाएगा आख़िर
'ख़ालिद' तिरा एहसास भी मर जाएगा आख़िर

मिट जाएगा ख़्वाहिश का निशाँ मौत के हाथों
ये साँप भी सीने से उतर जाएगा आख़िर

दिन जिस के लिए रात बड़े कर्ब में काटी
सायों के तआ'क़ुब में गुज़र जाएगा आख़िर

मैं ख़ौफ़ हूँ बैठा हूँ कमीं-गाह-ए-फ़ना में
तू बच के मिरी ज़द से किधर जाएगा आख़िर

जो साए के मानिंद रवाँ है मिरे हमराह
वो शख़्स भी तन्हा मुझे कर जाएगा आख़िर