EN اردو
हर नक़्श-ए-पा को मंज़िल-ए-जाँ मानना पड़ा | शाही शायरी
har naqsh-e-pa ko manzil-e-jaan manna paDa

ग़ज़ल

हर नक़्श-ए-पा को मंज़िल-ए-जाँ मानना पड़ा

किश्वर नाहीद

;

हर नक़्श-ए-पा को मंज़िल-ए-जाँ मानना पड़ा
मुद्दत के बा'द जब भी तिरा सामना पड़ा

अक्सर नक़ाब-ए-ज़ब्त हमें थामना पड़ा
जब भी फ़सील-ए-शब को हमें फाँदना पड़ा

हर बार भूलने को ग़मों की अज़िय्यतें
हर रिश्ता-ए-उमीद नया बाँधना पड़ा

हर आरज़ू से हम को मिली ताज़ा ज़िंदगी
हर आरज़ू का हम को लहू चाटना पड़ा

की थी हराम ख़ुद-कुशी मेरे ख़ुदा ने क्यूँ
बे-वज्ह ज़िंदगी का सफ़र काटना पड़ा