हर लम्हा था सौ साल का टलता भी तो कैसे
ले आई शब-ए-ग़म कोई मरता भी तो कैसे
इक आग थी जो फूँक रही थी दो-जहाँ को
वो दिल से मिरे हो के गुज़रता भी तो कैसे
हम प्यास के मारों ने अबस आस लगाई
बरसा हुआ बादल था बरसता भी तो कैसे
गुलचीं की नज़र ताक में रहती थी बराबर
ग़ुंचा कोई खिलता भी महकता भी तो कैसे
तिनके की रुकावट भी न थी ग़ार की तह में
फिर फैला हुआ पाँव सँभलता भी तो कैसे
साया न कोई नक़्श-ए-क़दम कूचा न बाज़ार
सहरा के सफ़र में था भटकता भी तो कैसे
सीने में कोई शो'ला न नज़रों में कहीं बर्क़
'शोहरत' भला दिल मेरा बहलता भी तो कैसे

ग़ज़ल
हर लम्हा था सौ साल का टलता भी तो कैसे
शोहरत बुख़ारी