EN اردو
हर लम्हा था सौ साल का टलता भी तो कैसे | शाही शायरी
har lamha tha sau sal ka Talta bhi to kaise

ग़ज़ल

हर लम्हा था सौ साल का टलता भी तो कैसे

शोहरत बुख़ारी

;

हर लम्हा था सौ साल का टलता भी तो कैसे
ले आई शब-ए-ग़म कोई मरता भी तो कैसे

इक आग थी जो फूँक रही थी दो-जहाँ को
वो दिल से मिरे हो के गुज़रता भी तो कैसे

हम प्यास के मारों ने अबस आस लगाई
बरसा हुआ बादल था बरसता भी तो कैसे

गुलचीं की नज़र ताक में रहती थी बराबर
ग़ुंचा कोई खिलता भी महकता भी तो कैसे

तिनके की रुकावट भी न थी ग़ार की तह में
फिर फैला हुआ पाँव सँभलता भी तो कैसे

साया न कोई नक़्श-ए-क़दम कूचा न बाज़ार
सहरा के सफ़र में था भटकता भी तो कैसे

सीने में कोई शो'ला न नज़रों में कहीं बर्क़
'शोहरत' भला दिल मेरा बहलता भी तो कैसे