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हर लम्हा नम-दीदा रहने की आदत | शाही शायरी
har lamha nam-dida rahne ki aadat

ग़ज़ल

हर लम्हा नम-दीदा रहने की आदत

मनीश शुक्ला

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हर लम्हा नम-दीदा रहने की आदत
ले डूबी रंजीदा रहने की आदत

अब अपना चेहरा बेगाना लगता है
हम को थी संजीदा रहने की आदत

आख़िर हम को बे-ज़ारी तक ले आई
हर शय पर गिरवीदा रहने की आदत

रफ़्ता रफ़्ता उर्यानी तक आ पहुँचे
जिन को थी पोशीदा रहने की आदत

दिख जाते हैं यूँ ही कुछ रंगीं मंज़र
अच्छी है ख़्वाबीदा रहने की आदत

हम हामी हैं सीधी-सादी बातों के
और उस को पेचीदा रहने की आदत

आख़िर-कार वरक़ के चिथड़े कर देगी
हर मौसम बोसीदा रहने की आदत