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हर लहज़ा मिरी ज़ीस्त मुझे बार-ए-गराँ है | शाही शायरी
har lahza meri zist mujhe bar-e-garan hai

ग़ज़ल

हर लहज़ा मिरी ज़ीस्त मुझे बार-ए-गराँ है

यूसुफ़ तक़ी

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हर लहज़ा मिरी ज़ीस्त मुझे बार-ए-गराँ है
वो मेरा लहू है कि मिरा दुश्मन-ए-जाँ है

इस दौर में जीने की सज़ा काट रहा हूँ
हर साँस की रफ़्तार में एहसास-ए-ज़ियाँ है

उड़ जाते हैं शाख़ों से सहर होते ही ताइर
बस रैन-बसेरा है यहाँ जो भी मकाँ है

दोनों ही जुनूँ-ख़ेज़ी के तूफ़ाँ में गिरफ़्तार
तहज़ीब-ए-इबादत न यहाँ है न वहाँ है

रिश्ते सभी ज़ंजीर-ए-ज़रूरत से जुड़े थे
अब कौन ये पूछे कि 'तक़ी' है तो कहाँ है