हर कोई तुर्रा-ए-पेचाक पहन कर निकला
एक मैं पैरहन-ए-ख़ाक पहन कर निकला
और फिर सब ने ये देखा कि इसी मक़्तल से
मेरा क़ातिल मिरी पोशाक पहन कर निकला
एक बंदा था कि ओढ़े था ख़ुदाई सारी
इक सितारा था कि अफ़्लाक पहन कर निकला
ऐसी नफ़रत थी कि इस शहर को जब आग लगी
हर बगूला ख़स-ओ-ख़ाशाक पहन कर निकला
तरकश ओ दाम अबस ले के चला है सय्याद
जो भी नख़चीर है फ़ितराक पहन कर निकला
उस के क़ामत से उसे जान गए लोग 'फ़राज़'
जो लबादा भी वो चालाक पहन कर निकला
ग़ज़ल
हर कोई तुर्रा-ए-पेचाक पहन कर निकला
अहमद फ़राज़