हर ख़ौफ़ हर ख़तर से गुज़रना भी सीखिए
जीना है गर अज़ीज़ तो मरना भी सीखिए
ये क्या कि डूब कर ही मिले साहिल-ए-नजात
सैलाब-ए-ख़ूँ से पार उतरना भी सीखिए
ऐसा न हो कि ख़्वाब ही रह जाए ज़िंदगी
जो दिल में ठानिए उसे करना भी सीखिए
बिगड़े बहुत कशाकश-ए-नाज़-ओ-नियाज़ में
अब उस की अंजुमन में सँवरना भी सीखिए
होता है पस्तियों के मुक़द्दर में भी उरूज
इक मौज-ए-तह-नशीं का उभरना भी सीखिए
औरों की सर्द-मेहरी का शिकवा बजा 'सहर'
ख़ुद अपने दिल को प्यार से भरना भी सीखिए
ग़ज़ल
हर ख़ौफ़ हर ख़तर से गुज़रना भी सीखिए
अबु मोहम्मद सहर