हर जल्वा-ए-हुस्न बे-वतन है
शायद कि ये महफ़िल-ए-सुख़न है
इक वज्द में जिस्म-ओ-जान-ए-फ़नकार
है रक़्स कि रूह का बदन है
हर फ़िक्र मिसाल-ए-चेहरा रौशन
हर शेर में बू-ए-पैरहन है
काफ़ूर की शमएँ जल उठी हैं
इबलाग़ ख़याल का कफ़न है
हर साज़ की आरज़ू तकल्लुम
हर साज़ सुकूत-ए-पैरहन है
ग़ज़ल
हर जल्वा-ए-हुस्न बे-वतन है
शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी