EN اردو
हर इंसाँ अपने होने की सज़ा है | शाही शायरी
har insan apne hone ki saza hai

ग़ज़ल

हर इंसाँ अपने होने की सज़ा है

अब्दुल हफ़ीज़ नईमी

;

हर इंसाँ अपने होने की सज़ा है
भरे बाज़ार में तन्हा खड़ा है

नए दरबानों के पहरे बिठाओ
हुजूम-ए-दर्द बढ़ता जा रहा है

रहे हम ही जो हर पत्थर की ज़द में
हमारी सर-बुलंदी की ख़ता है

महकते गेसुओं की रात गुज़री
सवा नेज़े पे अब सूरज खड़ा है

मिरे ख़्वाबों की चिकनी सीढ़ियों पर
न जाने किस का बुत टूटा पड़ा है

वो शोले हों लहू हो हादसे हों
मिरी ही ज़िंदगी पर तब्सिरा है

तिरी ज़ुल्फ़ें तो हैं बदनाम यूँही
मुझे दिन के उजालों ने डसा है

चलो चुपके से कुछ बुत और रख आएँ
दर-ए-काबा अभी शायद खुला है

उतर कर तो फ़सील-ए-शब से देखो
सहर ने ख़ुद-कुशी कर ली सुना है

अभी ताक़-ए-तसव्वुर पर 'नईमी'
चराग़-ए-लज़्ज़त-ए-शब जल रहा है