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हर इंक़लाब की सुर्ख़ी उन्हीं के अफ़्साने | शाही शायरी
har inqalab ki surKHi unhin ke afsane

ग़ज़ल

हर इंक़लाब की सुर्ख़ी उन्हीं के अफ़्साने

आनंद नारायण मुल्ला

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हर इंक़लाब की सुर्ख़ी उन्हीं के अफ़्साने
हयात-ए-दहर का हासिल हैं चंद दीवाने

ख़ुदा-ए-हर-दो-जहाँ ख़ूब है तिरी तक़्सीम
ज़मीं पे दैर-ओ-हरम और फ़लक पे मयख़ाने

हमारी जा भी कहीं है ख़ुदा-ए-दैर-ओ-हरम
हरम में ग़ैर हैं और बुत-कदे में बेगाने

न पूछ दौर-ए-हक़ीक़त की सख़्तियों को न पूछ
तरस गए लब-ए-अफ़्साना-गो को अफ़्साने

ये जब्र ज़ीस्त-ए-मोहब्बत पे कब तलक आख़िर
कि दिल सलाम करें और नज़र न पहचाने

अलग अलग से उफ़ुक़ पर हैं छोटे छोटे ग़ुबार
ये कारवाँ को मिरे क्या हुआ ख़ुदा जाने

निज़ाम-ए-मयकदा साक़ी चलेगा यूँ कब तक
छलक रहे हैं सुबू और तही हैं पैमाने