EN اردو
हर इक महाज़ को तन्हा सँभाले बैठे हैं | शाही शायरी
har ek mahaz ko tanha sambhaale baiThe hain

ग़ज़ल

हर इक महाज़ को तन्हा सँभाले बैठे हैं

नूरुल ऐन क़ैसर क़ासमी

;

हर इक महाज़ को तन्हा सँभाले बैठे हैं
हम एक दिल में कई रोग पाले बैठे हैं

अभी न ज़ोर दिखाए ये कह दो आँधी से
अभी हम अपने इरादों को टाले बैठे हैं

सितमगरों ने बहारों पे कर लिया क़ब्ज़ा
चमन को ख़ून-ए-जिगर देने वाले बैठे हैं

बताएँ क्या कि हमारे ही रहनुमा अब तो
हमारी राह में ख़ंजर निकाले बैठे हैं

ज़मीं पे अपना बसेरा तो है मगर 'क़ैसर'
निगाहें चाँद-सितारों पे डाले बैठे हैं