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हर इक इम्कान तक पस्पाई है अपनी | शाही शायरी
har ek imkan tak paspai hai apni

ग़ज़ल

हर इक इम्कान तक पस्पाई है अपनी

चंद्र प्रकाश शाद

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हर इक इम्कान तक पस्पाई है अपनी
और उस के बा'द सफ़-आराई है अपनी

सज़ा समझो मुझे उस खोखले-पन की
सदा हर सम्त से लौट आई है अपनी

जमाअत बे-जमाअत एक सा हूँ मैं
कि सदहा शक्ल की तन्हाई है अपनी

अब उन सैराबियों का सिलसिला कब तक
ख़बर तो मुद्दतों तक पाई है अपनी

फिर अपने आप में गिरने लगा हूँ मैं
वही लग़्ज़िश वही गहराई है अपनी

सफ़र बे-लज़्ज़ती की जुस्तुजू का है
ब-हर-मंज़र ज़ियाँ-पैमाई है अपनी