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हर इक दिल यहाँ है मोहब्बत से आरी | शाही शायरी
har ek dil yahan hai mohabbat se aari

ग़ज़ल

हर इक दिल यहाँ है मोहब्बत से आरी

सरदार सोज़

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हर इक दिल यहाँ है मोहब्बत से आरी
तुम्हीं को मुबारक ये दुनिया तुम्हारी

उन्हें हम से बढ़ के है ग़ैरों की पर्वा
निबाहेंगे कब तक हमीं वज़्अ'-दारी

रहा है यहाँ पर न कोई रहेगा
जो है आज उस की तो कल अपनी बारी

अभी तक न बदली मोहब्बत की क़िस्मत
अभी तक मोहब्बत में है बे-क़रारी

क़दम-रंजा फ़रमा रहे हैं वो आख़िर
ख़बर ला रही है ये बाद-ए-बहारी

क़सम है ये तुम को न आँसू बहाना
कभी याद आए जो तुम को हमारी

न बदला न बदला हसीनों का शेवा
वही तीर-ओ-नश्तर वही दिल-फ़िगारी

हूँ मम्नून-ए-एहसाँ ख़ुदा जानता है
है शामिल तबीअ'त में भी शर्मसारी

तिरे 'सोज़' की यूँ बसर हो रही है
न ग़ैरों से मतलब न अपनों से यारी