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हर इक दरवेश का क़िस्सा अलग है | शाही शायरी
har ek darwesh ka qissa alag hai

ग़ज़ल

हर इक दरवेश का क़िस्सा अलग है

रसा चुग़ताई

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हर इक दरवेश का क़िस्सा अलग है
मगर तर्ज़-ए-बयाँ अपना अलग है

ग़नीमत है बहम मिल बैठना भी
अगरचे वस्ल का लम्हा अलग है

मिले थे कब जो हम अब फिर मिलेंगे
हमारा आप का रस्ता अलग है

इबारत है शुऊर-ए-ज़िंदगी से
न ये दुनिया न वो दुनिया अलग है

नहीं है और वाबस्ता है सब से
हमारे दर्द का रिश्ता अलग है