हर इक दरवाज़ा मुझ पर बंद होता
अँधेरा जिस्म में नाख़ून होता
ये सूरज क्यूँ भटकता फिर रहा है
मिरे अंदर उतर जाता तो सोता
हर इक शय ख़ून में डूबी हुई है
कोई इस तरह से पैदा न होता
बस अब इक़रार को ओढ़ो बिछाओ
न होते ख़्वार जो इंकार होता
सलीबों में टँगे भी आदमी हैं
अगर उन को भी ख़ुद से प्यार होता
ग़ज़ल
हर इक दरवाज़ा मुझ पर बंद होता
फ़ज़्ल ताबिश