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हर इक दरवाज़ा मुझ पर बंद होता | शाही शायरी
har ek darwaza mujh par band hota

ग़ज़ल

हर इक दरवाज़ा मुझ पर बंद होता

फ़ज़्ल ताबिश

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हर इक दरवाज़ा मुझ पर बंद होता
अँधेरा जिस्म में नाख़ून होता

ये सूरज क्यूँ भटकता फिर रहा है
मिरे अंदर उतर जाता तो सोता

हर इक शय ख़ून में डूबी हुई है
कोई इस तरह से पैदा न होता

बस अब इक़रार को ओढ़ो बिछाओ
न होते ख़्वार जो इंकार होता

सलीबों में टँगे भी आदमी हैं
अगर उन को भी ख़ुद से प्यार होता