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हर गुम्बद-ए-बे-दर में भी इक दर है कि तू है | शाही शायरी
har gumbad-e-be-dar mein bhi ek dar hai ki tu hai

ग़ज़ल

हर गुम्बद-ए-बे-दर में भी इक दर है कि तू है

मुनीर सैफ़ी

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हर गुम्बद-ए-बे-दर में भी इक दर है कि तू है
फिर मुझ में कोई और नवा-गर है कि तू है

इक और ही आलम है वरा-ए-ख़स-ओ-ख़ाशाक
इक और ही मंज़र पस-ए-मंज़र है कि तू है

ता-हद्द-ए-नज़र एक नदी है कि हूँ मैं भी
ता-हद्द-ए-ख़याल एक समुंदर है कि तू है

पैवस्त हैं मिट्टी में मिरे पाँव कि मैं हूँ
अफ़्लाक के सीने पे मिरा सर है कि तू है

वहशत इसे कहिए न तहय्युर इसे कहिए
मैं भूल चला था मुझे अज़बर है कि तू है

देखूँ तो तिरा होना सहारा भी है मुझ को
सोचों तो मुझे एक यही डर है कि तू है