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हर गुल-ए-ताज़ा हमारे हाथ पर बैअत करे | शाही शायरी
har gul-e-taza hamare hath par baiat kare

ग़ज़ल

हर गुल-ए-ताज़ा हमारे हाथ पर बैअत करे

ज़हीर सिद्दीक़ी

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हर गुल-ए-ताज़ा हमारे हाथ पर बैअत करे
उस की ज़ुल्फ़ों तक पहुँचने के लिए मिन्नत करे

दिल बचाए या सराहे आतिश-ए-रुख़्सार को
जिस का घर जलता हो वो शोलों की क्या मिदहत करे

आम के फूलों को ख़ुद ही झाड़ दे और इस के ब'अद
बे-समर शाख़ों से आवारा हवा हुज्जत करे

शहर वालों को भी हाजत है अनाजों की मगर
ख़ुश-लिबासी मौसम-ए-बरसात पर ल'अनत करे

यूँ बहाने से छुपा लूँ अपने अश्कों को मगर
आँख की सुर्ख़ी दिल-ए-पुर-दर्द की ग़ीबत करे

ख़ून के दो चार क़तरे दिल में हैं बाक़ी 'ज़हीर'
दश्ना-ए-मिज़्गाँ से कह दो इक ज़रा ज़हमत करे