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हर गोशा-ए-आलम में ज़माने की सदा हूँ | शाही शायरी
har gosha-e-alam mein zamane ki sada hun

ग़ज़ल

हर गोशा-ए-आलम में ज़माने की सदा हूँ

ख़्वाजा रियाज़ुद्दीन अतश

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हर गोशा-ए-आलम में ज़माने की सदा हूँ
मैं वक़्त पे चलता हुआ नक़्श-ए-कफ़-ए-पा हूँ

ऐ दश्त-ए-तख़य्युल तिरी ख़ामोश नवा हूँ
मैं नक़्श-ए-हक़ीक़त हूँ मगर ख़्वाब-नुमा हूँ

इक आलम-ए-दुनिया है मिरी ज़ात के अंदर
मैं आग भी मिट्टी भी हूँ पानी हूँ हवा हूँ

दो लख़्त हुआ हूँ मैं तिरी जल्वागरी से
ऐसी है चकाचौंद कि साए से जुदा हूँ

दिन भर की 'अतश' धूप को दामन में समेटे
मैं शाम के सूरज की तरह डूब रहा हूँ