EN اردو
हर घर के मकीनों ने ही दर खोले हुए थे | शाही शायरी
har ghar ke makinon ne hi dar khole hue the

ग़ज़ल

हर घर के मकीनों ने ही दर खोले हुए थे

अंजुम तराज़ी

;

हर घर के मकीनों ने ही दर खोले हुए थे
सामान बँधा रक्खा था पर खोले हुए थे

क्या करते जो दो चार क़दम था लब-ए-दरिया
जब हौसले ही रख़्त-ए-सफ़र खोले हुए थे

इक उस के बिछड़ने का क़लक़ सब को हुआ था
सरसब्ज़ दरख़्तों ने भी सर खोले हुए थे

सच्चाई की ख़ुशबू की रमक़ तक न थी उन में
वो लोग जो बाज़ार-ए-हुनर खोले हुए थे

पहुँचा था हक़ीक़त को कोई एक ही 'अंजुम'
आँखें तो कई अहल-ए-नज़र खोले हुए थे