हर घर के मकीनों ने ही दर खोले हुए थे
सामान बँधा रक्खा था पर खोले हुए थे
क्या करते जो दो चार क़दम था लब-ए-दरिया
जब हौसले ही रख़्त-ए-सफ़र खोले हुए थे
इक उस के बिछड़ने का क़लक़ सब को हुआ था
सरसब्ज़ दरख़्तों ने भी सर खोले हुए थे
सच्चाई की ख़ुशबू की रमक़ तक न थी उन में
वो लोग जो बाज़ार-ए-हुनर खोले हुए थे
पहुँचा था हक़ीक़त को कोई एक ही 'अंजुम'
आँखें तो कई अहल-ए-नज़र खोले हुए थे
ग़ज़ल
हर घर के मकीनों ने ही दर खोले हुए थे
अंजुम तराज़ी