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हर घड़ी का साथ दुख देता है जान-ए-मन मुझे | शाही शायरी
har ghaDi ka sath dukh deta hai jaan-e-man mujhe

ग़ज़ल

हर घड़ी का साथ दुख देता है जान-ए-मन मुझे

इक़बाल साजिद

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हर घड़ी का साथ दुख देता है जान-ए-मन मुझे
हर कोई कहने लगा तन्हाई का दुश्मन मुझे

दिन को किरनें रात को जुगनू पकड़ने का है शौक़
जाने किस मंज़िल में ले जाएगा पागल-पन मुझे

सादा काग़ज़ रख के आया हूँ नुमाइश-गाह में
देख कर होती थी हर तस्वीर को उलझन मुझे

नाचता था पाँव में लम्हों के घुँगरू बाँध कर
दे गया धोका सिमट कर वक़्त का आँगन मुझे

नेकियों के फल नहीं लगते बदी के पेड़ पर
उस ने वापस कर दिया है फिर तही-दामन मुझे

दोस्तो सुन ली ख़ुदा ने कल मिरी पहली दुआ
शर्म से आख़िर झुकानी पड़ गई गर्दन मुझे

क्या मिला तुझ को बता अंधे से लाठी छीन कर
कर दिया क्यूँ आस से महरूम जान-ए-मन मुझे

सर्द हो सकती नहीं 'साजिद' कभी सीने की आग
दिल जलाने को मिला है याद का ईंधन मुझे