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हर घड़ी इक यही एहसास-ए-ज़ियाँ रहता है | शाही शायरी
har ghaDi ek yahi ehsas-e-ziyan rahta hai

ग़ज़ल

हर घड़ी इक यही एहसास-ए-ज़ियाँ रहता है

आलम ख़ुर्शीद

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हर घड़ी इक यही एहसास-ए-ज़ियाँ रहता है
आग रौशन थी जहाँ सिर्फ़ धुआँ रहता है

ख़त्म होता ही नहीं दश्त का अब सन्नाटा
कोई मौसम हो यहाँ एक समाँ रहता है

आ गई रास मिरे दिल की उदासी शायद
इतनी मुद्दत भी कहीं दौर-ए-ख़िज़ाँ रहता है

फूल खिलते हैं तो मुरझाए हुए लगते हैं
इक अजब ख़ौफ़ सर-ए-शाख़-ए-गुमाँ रहता है

साज़ के तार हैं टूटे हुए मुतरिब चुप हैं
अब फ़ज़ाओं में फ़क़त शोर-ए-सगाँ रहता है

रास्ता चलते हुए लोग ठिठक जाते हैं
हर-क़दम जैसे तह-ए-संग-ए-गराँ रहता है

मैं भी रुक जाऊँ मगर रुक नहीं पाता 'आलम'
एक दरिया सा सदा मुझ में रवाँ रहता है