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हर गली कूचे में रोने की सदा मेरी है | शाही शायरी
har gali kuche mein rone ki sada meri hai

ग़ज़ल

हर गली कूचे में रोने की सदा मेरी है

फ़रहत एहसास

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हर गली कूचे में रोने की सदा मेरी है
शहर में जो भी हुआ है वो ख़ता मेरी है

ये जो है ख़ाक का इक ढेर बदन है मेरा
वो जो उड़ती हुई फिरती है क़बा मेरी है

वो जो इक शोर सा बरपा है अमल है मेरा
ये जो तन्हाई बरसती है सज़ा मेरी है

मैं न चाहूँ तो न खिल पाए कहीं एक भी फूल
बाग़ तेरा है मगर बाद-ए-सबा मेरी है

एक टूटी हुई कश्ती सा बना बैठा हूँ
न ये मिट्टी न ये पानी न हवा मेरी है