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हर एक ज़र्रा बार-ए-अमानत से डर गया | शाही शायरी
har ek zarra bar-e-amanat se Dar gaya

ग़ज़ल

हर एक ज़र्रा बार-ए-अमानत से डर गया

सलाहुद्दीन नय्यर

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हर एक ज़र्रा बार-ए-अमानत से डर गया
इक मैं ही था कि तेरे मुक़ाबिल ठहर गया

हर चीज़ जल गई थी ब-जुज़ चश्म-ए-इन्तिज़ार
औरों के घर बुझा के जो मैं अपने घर गया

इस दौर-ए-इंतिशार का ये भी है हादिसा
तहज़ीब ज़िंदा रह गई इंसान मर गया

वो भी कभी था अपने क़बीले का आदमी
कल तेरी अंजुमन से जो बा-चश्म-ए-तर गया

तुम मुस्कुरा के एक तरफ़ हो गए मगर
इल्ज़ाम सारा ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ के सर गया

अब तक भी जिस को पाने की 'नय्यर' है आरज़ू
वो लम्हा-ए-अज़ीज़ न जाने किधर गया