हर एक ज़ख़्म की शिद्दत को कम किया जाता
नमक से काम न मरहम का गर लिया जाता
दिलों का बोझ दिलों से उतारने के लिए
ये लाज़मी था गरेबान को सिया जाता
ज़माना पाँव की ठोकर में आ भी सकता था
सरों को अपने उठा कर अगर जिया जाता
कमी न आती तिरे एहतिराम में शाहा
किसी ग़रीब का हक़ जो उसे दिया जाता
हमारी मौत भी होती बक़ा हमारी 'नबील'
कि प्याला ज़हर का हाथों से गर पिया जाता
ग़ज़ल
हर एक ज़ख़्म की शिद्दत को कम किया जाता
नबील अहमद नबील