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हर एक शख़्स को इक तनतने में रखती है | शाही शायरी
har ek shaKHs ko ek tantane mein rakhti hai

ग़ज़ल

हर एक शख़्स को इक तनतने में रखती है

ख़ालिद यूसुफ़

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हर एक शख़्स को इक तनतने में रखती है
वो भाँत भाँत की मछली घड़े में रखती है

तमाम शहर के दानिशवरों को वो ज़ालिम
असीर-ए-ज़ुल्फ़ किए आसरे में रखती है

वो गालियाँ भी अगर दे तो शेर-ओ-नग़्मा लगे
ज़बाँ में लोच अजब सुर गले में रखती है

उसे शराब-ए-तुहूरा का तज़्किरा भी गुनाह
ये बात और है सब को नशे में रखती है

हर इक को दर्द की लज़्ज़त से आश्ना कर के
मज़े में रहती है सब को मज़े में रखती है

समझ के हक़ वो हर एहसान भूल जाती है
मगर हर एक ख़ता हाफ़िज़े में रखती है

उसे ख़बर है कि अंजाम-ए-वस्ल क्या होगा
वो क़ुर्बतों की तपिश फ़ासले में रखती है

सुकूँ के साए में शायद उसे भुला बैठे
मुदाम शहर को इक ज़लज़ले में रखती है