हर एक शख़्स ख़फ़ा मुझ से अंजुमन में था
कि मेरे लब पे वही था जो मेरे मन में था
कसक उठी थी कुछ ऐसी कि चीख़ चीख़ पड़ूँ
रहा मैं चुप ही कि बहरों की अंजुमन में था
उलझ के रह गई जामे की दिलकशी में नज़र
उसे किसी ने न देखा जो पैरहन में था
कभी मैं दश्त में आवारा इक बगूला सा
कभी मैं निकहत-ए-गुल की तरह चमन में था
मैं उस को क़त्ल न करता तो ख़ुद-कुशी करता
वो इक हरीफ़ की सूरत मिरे बदन में था
उसी को मेरे शब-ओ-रोज़ पर मुहीत न कर
वो एक लम्हा-ए-कमज़ोर जो गहन में था
मिरी सदा भी न मुझ को सुनाई दी 'साबिर'
कुछ ऐसा शोर बपा सहन-ए-अंजुमन में था
ग़ज़ल
हर एक शख़्स ख़फ़ा मुझ से अंजुमन में था
नो बहार साबिर