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हर एक सम्त इशारे थे और रस्ता भी | शाही शायरी
har ek samt ishaare the aur rasta bhi

ग़ज़ल

हर एक सम्त इशारे थे और रस्ता भी

सुनील आफ़ताब

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हर एक सम्त इशारे थे और रस्ता भी
मलाल ये है कि आया न हम को चलना भी

हमारी प्यास मुकम्मल हो तो क़दम भी उठें
रखे हैं सामने दरिया भी और सहरा भी

बुझे चराग़ तो हैरानियाँ कुछ और बढ़ीं
हमारे साथ है अब तक हमारा साया भी

इक ऐसी लहर उठी डूबने का ख़ौफ़ उठा
अब एक जैसे हैं मंजधार भी किनारा भी

सफ़र से लौट तो आया मगर न था मालूम
हमारे साथ चला आएगा ये रस्ता भी