हर एक रुख़ से मुझे लुत्फ़-ए-जुस्तुजू आए
ज़रा वो और क़रीब-ए-रग-ए-गुलू आए
मआल-ए-नाज़-ए-ख़ुदी क्या है ये तो समझा दूँ
जिसे हो नाज़-ए-ख़ुदी मेरे रू-ब-रू आए
बग़ैर इज़्न ही साक़ी ने कर लिया क़ब्ज़ा
हमारे वास्ते जब साग़र-ओ-सुबू आए
क़दम क़दम पे है ख़ुद्दारी-ए-हयात का डर
मिरी ज़बान पे क्या हर्फ़-ए-आरज़ू आए
तिरी फ़ज़ा-ए-मोहब्बत हो ख़ुश-गवार इतनी
नफ़स नफ़स से ख़ुलूस-ओ-वफ़ा की बू आए
हमारे दिल में अदावत रहेगी क्या 'अशरफ़'
नज़र झुकाए हुए जब कोई अदू आए
ग़ज़ल
हर एक रुख़ से मुझे लुत्फ़-ए-जुस्तुजू आए
अशरफ़ रफ़ी