हर एक राह में इम्कान-ए-हादिसा है अभी
कि खो न जाऊँ अँधेरे में सोचना है अभी
तमाम उम्र वो चलता रहा है सहरा में
घने दरख़्त के साए में जो खड़ा है अभी
सुकून तेरे तसव्वुर से जिस को मिलता है
वो तेरी दीद को लेकिन तड़प रहा है अभी
हर एक शख़्स के चेहरे पे ख़ौफ़ तारी है
न जाने कौन अँधेरे में चीख़ता है अभी
वो खो गया है कहीं भीड़ में तो क्या कीजिए
जो दुख है उस के न मिलने का वो जुदा है अभी
ठहर गए हो सर-ए-राह किस लिए आख़िर
चले भी जाओ कि कोई बला रहा है अभी
दरीचा खोल के 'नय्यर' न देखिए बाहर
लहूलुहान मनाज़िर का सिलसिला है अभी
ग़ज़ल
हर एक राह में इम्कान-ए-हादिसा है अभी
अज़हर नैयर