EN اردو
हर एक लम्हा-ए-ग़म बहर-ए-बे-कराँ की तरह | शाही शायरी
har ek lamha-e-gham bahr-e-be-karan ki tarah

ग़ज़ल

हर एक लम्हा-ए-ग़म बहर-ए-बे-कराँ की तरह

अरशद कमाल

;

हर एक लम्हा-ए-ग़म बहर-ए-बे-कराँ की तरह
किसी का ध्यान है ऐसे में बादबाँ की तरह

नसीम-ए-सुब्ह ये कहती है कितनी हसरत से
कोई तो बाग़ में मिल जाए बाग़बाँ की तरह

है वो तपिश तिरे पलकों के शामियाने में
कि अब तो धूप भी लगती है साएबाँ की तरह

हर एक मोड़ पे मिलते हैं हम-ख़याल मगर
कहीं तो कोई मिले मुझ को हम-ज़बाँ की तरह

फ़रेब-ए-चश्म है यारो कि इक हक़ीक़त है
समाँ जो शहर का है शहर के समाँ की तरह

हवा-ए-ज़ीस्त को आना है जब तक आएगी
बहार बन के कभी तो कभी ख़िज़ाँ की तरह

हर एक लफ़्ज़ निकलता है मिस्ल-ए-तीर-ए-नवा
ज़बान-ए-यार है 'अरशद' किसी कमाँ की तरह