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हर एक ख़लिया को आईना घर बनाते हुए | शाही शायरी
har ek KHaliya ko aaina ghar banate hue

ग़ज़ल

हर एक ख़लिया को आईना घर बनाते हुए

रियाज़ लतीफ़

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हर एक ख़लिया को आईना घर बनाते हुए
बहुत बटा हूँ बदन मो'तबर बनाते हुए

मेरे नुज़ूल में सात आसमाँ की गर्दिश है
उतर रहा हूँ दिलों में भँवर बनाते हुए

अदम की रग में जो इक लहर है वहीं से कहीं
गुज़र गया हूँ सफ़र मुख़्तसर बनाते हुए

मिरी हथेली पे ठहरा है इर्तिक़ा का बहाओ
जहाँ की ख़ाक से अपना खंडर बनाते हुए

कि दो जहान के इसबात मैं ने फूंके हैं
तेरे सदफ़ में नफ़ी का गुहर बनाते हुए

जगाऊँ किस के मनाज़िर उफ़ुक़ की आँखों में
कि मैं ही ख़्वाब हुआ हूँ नज़र बनाते हुए

'रियाज़' फिर से भटकता है जुगनुओं की तरह
किसी की रात में दिल को शरर बनाते हुए