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हर एक दर पे सर को टपकने के बावजूद | शाही शायरी
har ek dar pe sar ko Tapakne ke bawajud

ग़ज़ल

हर एक दर पे सर को टपकने के बावजूद

ओम कृष्ण राहत

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हर एक दर पे सर को टपकने के बावजूद
का'बे पहुँच गया हूँ भटकने के बावजूद

क्या कीजिए कि गर्द तलब की जमी रही
दामान-ए-दिल को रोज़ झटकने के बावजूद

शायद खुली है आप के आने से चाँदनी
धुँदली सी लग रही थी छिटकने के बावजूद

कैसा है ये बहार का मौसम कि बाग़ में
हँसती नहीं हैं कलियाँ चटकने के बावजूद

हम भी किताब-ए-ज़ीस्त को पढ़ते चले गए
एक एक हर्फ़-ए-ग़म पे अटकने के बावजूद

अब के जुनूँ में आलम-ए-शोरीदगी न पूछ
क़ाएम रहा है सर को पटकने के बावजूद

राहत गुज़ार दी है बड़ी शान से हयात
आँखों में ज़िंदगी की खटकने के बावजूद