हर एक बात पे क्यूँ पेच-ओ-ताब होता है
अज़ीज़ो जुर्म-ए-मोहब्बत अज़ाब होता है
फ़राज़-ए-बाम पे देखा है जब कभी उन को
नज़र में बीच रुख़-ए-माहताब होता है
फ़क़त ये इश्क़-ओ-मोहब्बत की हम पे आफ़त है
कि जब भी होता है हम पर इ'ताब होता है
जहाँ पे ज़ुल्म-ओ-सितम हद से अपनी बढ़ते हैं
यक़ीन मानो वहीं इंक़लाब होता है
न अंजुमन में ठिकाना न अपने घर में कहीं
ख़राब बज़्म भी ख़ाना-ख़राब होता है
सवाल-ए-अज्र-ए-मोहब्बत पे वो बिगड़ बैठा
इ'ताब करता है जब ला-जवाब होता है
सँभल के बैठ ज़रा दिल को थाम ऐ 'शादाँ'
किसी का हुस्न अभी बे-नक़ाब होता है
ग़ज़ल
हर एक बात पे क्यूँ पेच-ओ-ताब होता है
शांति लाल मल्होत्रा