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हर-चंद तिरे ग़म का सहारा भी नहीं है | शाही शायरी
har-chand tere gham ka sahaara bhi nahin hai

ग़ज़ल

हर-चंद तिरे ग़म का सहारा भी नहीं है

सलीम फ़राज़

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हर-चंद तिरे ग़म का सहारा भी नहीं है
जीने के अलावा कोई चारा भी नहीं है

हर रोज़ किए जाती है ये ज़ीस्त तक़ाज़े
क्या क़र्ज़ था जो हम ने उतारा भी नहीं है

पहले तो ये मौजें भी हिमायत में खड़ी थीं
अब मेरा मदद-गार किनारा भी नहीं है

जाता भी नहीं छोड़ के वो मुझ को अकेला
और साथ मिरा उस को गवारा भी नहीं है

कुछ अपने मुक़द्दर को बिगाड़ा भी हमीं ने
कुछ अपने मुआफ़िक़ ये सितारा भी नहीं है

होती थी जिसे देख के सरशार तबीअ'त
आँखों में वो सरसब्ज़ नज़ारा भी नहीं है

ये बात अलग जीत के आसार नहीं हैं
इस मार्का-ए-जाँ को वो हारा भी नहीं है

हर कोई 'सलीम' उस का मुख़ालिफ़ है जहाँ में
और कोई ख़िलाफ़ उस के सफ़-आरा भी नहीं है