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हर-चंद मिरा शौक़-ए-सफ़र यूँ न रहेगा | शाही शायरी
har-chand mera shauq-e-safar yun na rahega

ग़ज़ल

हर-चंद मिरा शौक़-ए-सफ़र यूँ न रहेगा

सलीम फ़राज़

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हर-चंद मिरा शौक़-ए-सफ़र यूँ न रहेगा
क्या ख़ार सर-ए-राहगुज़र यूँ न रहेगा

मुमकिन है तिरी याद सुलगती रहे ता-उम्र
ये शो'ला शरर-बार मगर यूँ न रहेगा

इस धूप में मेरी भी झुलस जाएँगी आँखें
तेरा भी रुख़-ए-ग़ुंचा-ए-तर यूँ न रहेगा

मौक़ा है गुल-ओ-बर्ग सजा लो सर-ए-मिज़्गाँ
हर फ़स्ल में सरसब्ज़ शजर यूँ न रहेगा

कुछ शे'र रक़म करते चलो लौह-ए-जुनूँ पर
हर दौर में ये कार-ए-हुनर यूँ न रहेगा

कुछ लोग मिरे बा'द भी रह जाएँगे लेकिन
सहरा में कोई ख़ाक-ब-सर यूँ न रहेगा

ख़ुश आए 'सलीम' आज उसे मेरी असीरी
कल तक मगर अफ़्सूँ का असर यूँ न रहेगा