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हर चंद कि प्यारा था मैं सूरज की नज़र का | शाही शायरी
har chand ki pyara tha main suraj ki nazar ka

ग़ज़ल

हर चंद कि प्यारा था मैं सूरज की नज़र का

सिद्दीक़ अफ़ग़ानी

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हर चंद कि प्यारा था मैं सूरज की नज़र का
फिर भी मुझे खटका ही रहा शब के सफ़र का

उलझी है बहुत जिस्म से दरिया की रवानी
इस चोबी महल का कोई तख़्ता भी न सर का

डूबा हुआ ऐवान-ए-शफ़क़ भी है धुएँ में
बे-रंग सा हर नक़्श है दीवार-ए-सहर का

रिसते हुए नासूर पे चलते रहे नश्तर
ताज़ा ही रहा फूल सदा ज़ख़्म-ए-हुनर का

मैं हूँ कि कड़ी धूप के सहरा में घिरा हूँ
साया कहीं मिलता ही नहीं शाख़-ए-शजर का

मज़लूम था मैं कल भी तो महरूम हूँ अब भी
उन्वान बदलता ही नहीं मेरी ख़बर का

बिजली तो सुना है कहीं जंगल में गिरी थी
उतरा हुआ चेहरा है चमन में गुल-ए-तर का

तब बर्फ़ के महताब से फूटेंगी शुआएँ
बुझ जाएगा जब शो'ला मिरे दाग़-ए-जिगर का

आईना शिकस्ता हुआ चुभने लगीं पलकें
नज़्ज़ारा भी देखा न गया रूप-नगर का

आसेब हो सरसर हो बला हो कि क़ज़ा हो
सब के लिए दरवाज़ा खुला है मिरे घर का

उड़ती ही रही ख़ाक-ए-बदन तेज़ हवा में
एहसान ये कुछ कम तो नहीं बर्क़-ओ-शरर का

मिट जाएँगी पेशानी-ए-मरमर से लकीरें
अब रंग उतर जाएगा ताऊस के पर का

ख़ुशियों का चमक-दार हिरन हाथ न आया
पीछा क्या आहों ने बहुत जज़्ब-ओ-असर का

किस तरह मयस्सर हो मुझे अर्सा-ए-राहत
हर लहज़ा नई चोट नया ग़म नया चरका

'सिद्दीक़' जिन्हें राह-ए-वफ़ा मैं ने सुझाई
पत्थर वही कहते हैं मुझे राहगुज़र का