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हर-चंद कि इंसाफ़ का ख़्वाहाँ भी वही है | शाही शायरी
har-chand ki insaf ka KHwahan bhi wahi hai

ग़ज़ल

हर-चंद कि इंसाफ़ का ख़्वाहाँ भी वही है

इरफ़ान वहीद

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हर-चंद कि इंसाफ़ का ख़्वाहाँ भी वही है
क़ातिल भी वही और निगहबाँ भी वही है

बर्बादी-ए-गुलशन का जो सामान बना था
बर्बादी-ए-गुलशन पे पशेमाँ भी वही है

है निस्बत-ए-नौमीदी-ए-तारीकी-ए-शब जो
इक मुज़्दा-ए-उम्मीद-ए-फरोज़ाँ भी वही है

पानी में तलातुम भी उसी चाँद के बाइ'स
और अपनी अदा देख के हैराँ भी वही है

ततहीर-ए-सियासत का भी दा'वा है उसी को
तन्क़ीद-ए-हुकूमत से गुरेज़ाँ भी वही है

मुश्किल है मफ़र वहशत-ए-तन्हाई से 'इरफ़ान'
जो क़र्या है आबाद बयाबाँ भी वही है