EN اردو
हर बे-ख़ता है आज ख़ता-कार देखना | शाही शायरी
har be-KHata hai aaj KHata-kar dekhna

ग़ज़ल

हर बे-ख़ता है आज ख़ता-कार देखना

इम्तियाज़ साग़र

;

हर बे-ख़ता है आज ख़ता-कार देखना
सच्चाइयों पे झूट की यलग़ार देखना

तक़दीर बन न जाए शब-ए-तार देखना
बुझने को है चराग़ सर-ए-दार देखना

मक़्तूल की जबीं पे है क़ातिल लिखा हुआ
क्या फ़ैसला हो कल सर-ए-दरबार देखना

होगा बहुत शदीद तमाज़त का इंतिक़ाम
साए से मिल के रोएगी दीवार देखना

इन पत्थरों के साए में रुकना फ़ुज़ूल है
बे-बर्ग-ओ-बे-समर हैं ये कोहसार देखना

इस शहर-ए-आरज़ू को नज़र किस की खा गई
मक़्तल बने हैं कूचा-ओ-बाज़ार देखना

कुछ दिन अगर ये मौसम-ए-वहशत-असर रहा
हर आदमी को बे-दर-ओ-दीवार देखना

देता हूँ कैसे जान सर-ए-जादा-ए-वफ़ा
मुझ को न देखना मिरा पिंदार देखना

ख़ून-ए-जिगर से लिखता हूँ 'साग़र' मैं हर्फ़-ए-हक़
वक़्त आए तो क़लम को भी तलवार देखना