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हर बार नया ले के जो फ़ित्ना नहीं आया | शाही शायरी
har bar naya le ke jo fitna nahin aaya

ग़ज़ल

हर बार नया ले के जो फ़ित्ना नहीं आया

नश्तर ख़ानक़ाही

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हर बार नया ले के जो फ़ित्ना नहीं आया
इस उम्र में ऐसा कोई लम्हा नहीं आया

हूँ घर में कि अहबाब में मातूब रहे हम
कुछ हम से न आया तो दिखावा नहीं आया

आलूदा कभी गर्द-ए-तलब से न हुए हम
होंटों पे कभी हर्फ़-ए-तमन्ना नहीं आया

ये भी है कि मौज़ूँ न थी दुनिया की रविश भी
कुछ हम से भी जीने का सलीक़ा नहीं आया

छोड़ा तो न था हम ने सवालों का कोई हल
थी जिस की तवक़्क़ो वो नतीजा नहीं आया

नीलाम न कर दी हो कहीं प्यास की ग़ैरत
इस बार कोई कूफ़े से प्यासा नहीं आया

इक शख़्स पहेली की तरह साथ था मेरे
मैं शहर से निकला तो अकेला नहीं आया