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हर आरज़ू में रंग है बाग़-ओ-बहार का | शाही शायरी
har aarzu mein rang hai bagh-o-bahaar ka

ग़ज़ल

हर आरज़ू में रंग है बाग़-ओ-बहार का

चंद्रभान कैफ़ी देहल्वी

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हर आरज़ू में रंग है बाग़-ओ-बहार का
काँटा भी एक फूल है उस ख़ार-ज़ार का

कुछ इस तरह से आओ कि दिल को ख़बर न हो
कुछ वस्ल में भी लुत्फ़ रहे इंतिज़ार का

बू-ए-वफ़ा न ढूँढिए लाला के दाग़ में
क्या ये भी कोई दिल है किसी दिल-फ़िगार का

लग़्ज़िश हुइ तो पाँव पे साक़ी के गिर पड़े
बेहोशियों से काम लिया होशियार का

सर-चश्मा-ए-सराब फ़रेब-ए-मजाज़ है
क्या ए'तिबार ज़िंदगी-ए-मुस्तआ'र का

इरफ़ाँ की रौशनी से कुदूरत चली गई
आईना बन गया मिरे मुश्त-ए-ग़ुबार का

दौर-ए-शबाब की वो तरंगें कहाँ गईं
ख़म्याज़ा देखता है ये 'कैफ़ी' ख़ुमार का