हर आन जल्वा नई आन से है आने का
चलन ये चलते हो आशिक़ की जान जाने का
क़सम क़दम की तिरे जब तलक है दम में दम
मैं पाँव पर से तिरे सर नहीं उठाने का
हमारी जान पे गिरती है बर्क़-ए-ग़म ज़ालिम
तुझे तो सहल सा है शग़्ल मुस्कुराने का
क़सम ख़ुदा की मैं कुछ खा के सो रहूँगा सनम
जो साथ अपने नहीं मुझ को तू सुलाने का
नसीब उस के शराब-ए-बहिश्त होवे मुदाम
हुआ है जो कोई मूजिद शराब-ख़ाने का
बहुत से ख़ून-ख़राबे मचेंगे ख़ाना-ख़राब
यही है रंग अगर तेरे पान खाने का
हमारी छाती पे फिरता है साँप याँ 'एहसाँ'
वहाँ है शग़्ल उसे ज़ुल्फ़ के बनाने का
ग़ज़ल
हर आन जल्वा नई आन से है आने का
अब्दुल रहमान एहसान देहलवी