हर आदमी को ख़्वाब दिखाना मुहाल है
शोलों में जैसे फूल खिलाना मुहाल है
काग़ज़ की नाव भी है खिलौने भी हैं बहुत
बचपन से फिर भी हाथ मिलाना मुहाल है
इंसाँ की शक्ल ही में दरिंदे भी हैं मगर
हर अक्स आईने में दिखाना मुहाल है
मुश्किल नहीं उतारना सूरज को थाल में
लेकिन चराग़ उस से जलाना मुहाल है
इक बार ख़ुद जो लफ़्ज़ों के पिंजरे में आ गया
उस ताइर-ए-नवा को उड़ाना मुहाल है
अपने लहू की भेंट चढ़ाने के ब'अद भी
क़द्रों की हर फ़सील तक आना मुहाल है
ता-उम्र अपनी फ़िक्र ओ रियाज़त के बावजूद
ख़ुद को किसी सज़ा से बचाना मुहाल है
ग़ज़ल
हर आदमी को ख़्वाब दिखाना मुहाल है
ज़हीर ग़ाज़ीपुरी