हर आदमी कहाँ औज-ए-कमाल तक पहुँचा
उरूज हद से बढ़ा तो ज़वाल तक पहुँचा
ख़ुद अपने आप में झुँझला के रह गया आख़िर
मिरा जवाब जब उस के सवाल तक पहुँचा
ग़ुबार-ए-किज़्ब से धुँदला रहा हमेशा जो
वो आइना मिरे कब ख़द्द-ओ-ख़ाल तक पहुँचा
चलो न सर को उठा कर ग़ुरूर से अपना
गिरा है जो भी बुलंदी से ढाल तक पहुँचा
जिसे भरोसा नहीं था उड़ान पर अपनी
वही परिंदा शिकारी के जाल तक पहुँचा
तवाफ़ करते रहे सब ही रास्ते में मगर
हर एक शख़्स ही गर्द-ए-मलाल तक पहुँचा
मिरी नजात का होगा 'ज़फ़र' वसीला वही
जो लफ़्ज़ ना'त का मेरे ख़याल तक पहुँचा
ग़ज़ल
हर आदमी कहाँ औज-ए-कमाल तक पहुँचा
ज़फ़र इक़बाल ज़फ़र