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हक़ीक़तों से उलझता रहा फ़साना मिरा | शाही शायरी
haqiqaton se ulajhta raha fasana mera

ग़ज़ल

हक़ीक़तों से उलझता रहा फ़साना मिरा

शाहिद माहुली

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हक़ीक़तों से उलझता रहा फ़साना मिरा
गुज़र गया है मुझे रौंद के ज़माना मिरा

समुंदरों में कभी तिश्नगी के सहरा में
कहाँ कहाँ न फिरा ले के आब-ओ-दाना मिरा

तमाम शहर से लड़ता रहा मिरी ख़ातिर
मगर उसी ने कभी हाल-ए-दिल सुना न मिरा

जो कुछ दिया भी तो महरूमियों का ज़हर दिया
वो साँप बन के छुपाए रहा ख़ज़ाना मिरा

वो और लोग थे जो माँग ले गए सब कुछ
यहाँ तो शरम थी दस्त-ए-तलब उठा न मिरा

मुझे तबाह किया इल्तिफ़ात ने उस के
उसे भी आ न सका रास दोस्ताना मिरा

किसे क़ुबूल करें और किस को ठुकराएँ
इन्हें सवालों में उलझा है ताना-बाना मिरा