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हक़ीक़तों से मगर मुन्हरिफ़ रहा न गया | शाही शायरी
haqiqaton se magar munharif raha na gaya

ग़ज़ल

हक़ीक़तों से मगर मुन्हरिफ़ रहा न गया

मुज़फ़्फ़र मुम्ताज़

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हक़ीक़तों से मगर मुन्हरिफ़ रहा न गया
सो शहर-ए-ख़्वाब से अपना भी आब-ओ-दाना गया

हरीफ़-ए-ज़ात अजब थे कि उम्र भर ख़ुद को
बुरा समझते रहे पर बुरा कहा न गया

जो मुंतशिर हूँ तो हैरत न कर कि दरिया में
भँवर के बा'द किसी लहर में बहा न गया

अजीब लम्स था अब के जुनूँ के हाथों में
क़बा-ए-रंग में ख़ुश्बू से फिर रहा न गया

हवा मिज़ाज तिरे दर-ब-दर रहे ता उम्र
किसी भी दश्त किसी शहर में बसा न गया

ज़मीं से उड़ के ज़मीं तक पहुँच गई आख़िर
सरिश्त-ए-ख़ाक से अफ़्लाक में रहा न गया