EN اردو
हक़ीक़तों को फ़साना नहीं बनाती मैं | शाही शायरी
haqiqaton ko fasana nahin banati main

ग़ज़ल

हक़ीक़तों को फ़साना नहीं बनाती मैं

ज़हरा क़रार

;

हक़ीक़तों को फ़साना नहीं बनाती मैं
दिए जला के नदी में नहीं बहाती मैं

वो फ़ाख़्ता की अलामत अगर समझ जाता
तो उस के सामने तलवार क्यूँ उठाती मैं

जनाब वाक़ई मैं ने कहीं नहीं जाना
वगर्ना आप की गाड़ी में बैठ जाती मैं

फिर एक दम मिरे पैरों में गिर गए कुछ लोग
क़रीब था कि कोई फ़ैसला सुनाती मैं

ख़ुदा का शुक्र कि वो रास्ते से लौट गया
अगर वो आता तो उस को कहाँ बिठाती मैं

किसी ख़याल में हाथों से छूट जाते हैं
ये जान बूझ के बर्तन नहीं गिराती मैं

वो दिल हो या मिरी गुड़िया की मौत हो जो हो
हमेशा सोग में चूल्हा नहीं जलाती मैं

मैं मानती हूँ मिरा फ़ैसला ग़लत निकला
तुम्हीं बताओ कि पहले किसे बचाती मैं

मिरा बदन किसी तितली से कम नहीं ज़हरा
तू मर न जाती अगर तेरे हाथ आती मैं