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हक़ीक़तों का पता दे के ख़ुद सराब हुआ | शाही शायरी
haqiqaton ka pata de ke KHud sarab hua

ग़ज़ल

हक़ीक़तों का पता दे के ख़ुद सराब हुआ

रज़ी मुजतबा

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हक़ीक़तों का पता दे के ख़ुद सराब हुआ
वो मुझ को होश में ला कर ख़याल-ओ-ख़्वाब हुआ

वो अपने लम्स से पत्थर बना गया मुझ को
विसाल उस का मुझे सूरत-ए-अज़ाब हुआ

सरों पे सब के पड़ी हादसों की धूप मगर
कोई सराब बना और कोई सहाब हुआ

अज़ाब सब के मिरे जिस्म-ओ-जाँ पे नक़्श हुए
मिरा वजूद मिरे अहद की किताब हुआ

सुकूत-ए-शहर-ए-सितम से असीर-ए-यास न हो
कि याँ सकूँ से हुआ जो भी इंक़लाब हुआ

वही तो एक हमारा मिज़ाज-दाँ था 'रज़ी'
जो हम से दूर रहा और न दस्तियाब हुआ