हक़-नवाई को ज़माने की ज़बाँ कौन करे
ऐसी तल्ख़ी को 'समद' लज़्ज़त-ए-जाँ कौन करे
अब सर-ए-दार वफ़ाओं के लिए कौन आए
चंद ख़्वाबों के लिए तर्क-ए-जहाँ कौन करे
हम ने माना कि बड़ी चीज़ है पाबंदी-ए-वक़्त
सज्दा-ए-शौक़ को पाबंद-ए-अज़ाँ कौन करे
वक़्त की चाप से गूँजी है मिरी तन्हाई
वक़्त की चाप को अब और गराँ कौन करे
कौन ऊँची करे बुझते हुए अन्फ़ास की लौ
इस अँधेरे में तलाश-ए-रग-ए-जाँ कौन करे
शोला-ए-फ़िक्र पे सूरज का गुमाँ होता है
शोला-ए-फ़िक्र को मोहताज-ए-बयाँ कौन करे
हम वो पत्थर हैं कि सैक़ल हो तो आईना बनें
संग पर मश्क़-ए-फ़न-ए-शीशा-गराँ कौन करे
कौन दिखलाए हक़ीक़त को 'समद' राह-ए-मजाज़
हासिल-ए-दीदा-ओ-दिल नज़्र-ए-बुताँ कौन करे

ग़ज़ल
हक़-नवाई को ज़माने की ज़बाँ कौन करे
समद अंसारी