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हक़ मुझे बातिल-आशना न करे | शाही शायरी
haq mujhe baatil-ashna na kare

ग़ज़ल

हक़ मुझे बातिल-आशना न करे

इनामुल्लाह ख़ाँ यक़ीन

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हक़ मुझे बातिल-आशना न करे
मैं बुतों से फिरूँ ख़ुदा न करे

दोस्ती बद बला है इस में ख़ुदा
किसी दुश्मन को मुब्तला न करे

है वो मक़्तूल काफ़िर-ए-नेमत
अपने क़ातिल को जो दुआ न करे

रू मिरे को ख़ुदा क़यामत तक
पुश्त-ए-पा से तिरी जुदा न करे

नासेहो ये भी कुछ नसीहत है
कि 'यक़ीं' यार से वफ़ा न करे